Journalism

Saturday 13 February 2016

अगर हमने आसान नाटक उठा लिया तो उसमें एज़ एन एक्टर हमारी ग्रो नही होगी : संदीप महाजन

 


नाटक 'शकुन्तला की अंगूठी' के निर्देशक संदीप महाजन के साथ सिकेन शेखर की खास बातचीत 
प्रस्तुत हैं चुनिंदा अंश -

सवाल : आखिर 'शकुन्तला की अंगूठी' नाटक को ही आपने क्यों चुना ? 

देखिये सबसे पहले तो मेरा ये कोशिश रहता है कि मैं बच्चों को जितना चैलेंज  दे सकता हूँ नाटक में, मैं उतना दूँ। और साथ ही साथ मैं उन नाटकों को छूने की कोशिश करूँ, जिनसे एज़ एन एक्टर उनको बहुत कुछ सिखने को मिले। इसलिए मैंने ज्यादातर कोशिश ये करी है कि मैं टफ़ से टफ नाटक दूँ। जिसमे उनकी लैंग्वेज स्किल्स को लेकर उन्हें बहुत कुछ सिखने को मिले, जैसे- डिक्शन के लेवल तक और जहां पर अंडरस्टैंडिंग के लेवल पर उनको  बहुत डीप तक जाना पड़े। इसलिए मैंने आधे अधूरे, अषाढ़ का एक दिन या खामोश अदालत जारी है आदि नाटकों को पहले भी आईएफटीआई के प्लेटफार्म पर लिए है।   जिसमें टेक्स्ट बहुत हेवी है। अब हर बार मुझको प्ले चूज़ करना मेरे लिए यह एक चैलेंज सा रहता है कि हर बार मैं ऐसा प्ले कहां से लाऊं। और साथ ही साथ उतने किरदारों के साथ जितने किरदार मेरे पास है। हुआ ऐसा कि जब मैंने दो-तीन नाटक सजेस्ट किए तो एक लड़का है शिवम उसने मुझे कहा कि सर दादा जी कह रहे थे अभिज्ञान शकुंतलम् कर। मैंने कहा ठीक है।  हमने अभिज्ञान शकुंतलम् पढ़ा, साथ ही साथ अभिज्ञान शकुंतलम्  से रिलेटेड बहुत से नाटक पढ़े, जिसमें एक था 'शकुन्तला की अंगूठी'। यहाँ तक हमारा सफर तय हुआ और मुझे पता चला कि 'शकुन्तला की अंगूठी' कितना टफ है। तो इसलिए उसमे सब चीजें थी जो एज़ एन एक्टर आपको चैलेंज करती है। मुझे इस बात का कभी डर नही रहता कि वह कैसा होगा ? कैसा नही होगा ? क्योंकि मुझे लगता है कि अगर हमने आसान नाटक उठा लिया तो उसमें एज़ एन एक्टर हमारी ग्रो नही होगी। यही कारण  है कि 'शकुन्तला की अंगूठी' नाटक को इस बार हमने चुना।

सवाल : भूमंडलीकरण के दौर में प्ले डायरेक्टर के तौर पर रंगमंच से कितना चैलेंजिंग होता किसी ज्वलंत मुद्दे को ऑडिएंस तक पहुंचाना ?
   
एज़ एन डायरेक्टर बड़ा चैलेंजिंग होता है नाटक के उदेश्य को ऑडिएंस तक पहुंचाना। अगर आप ध्यान से इन नाटकों को देखें और समझें तो जो बात आज के ज़माने में हम बहुत सीधे-सीधे कह रहे है। वह बात बहुत इनडायरेक्टली कह देती है। ज्यादा समझ के साथ आपको सोचने पर मजबूर कर देती है। 'अंधा युग' में कलयुग की बात हो रही होती है। कलयुग ऐसा आएगा कि अंधे राज करेंगे। तो आज के ज़माने में सिनेरियो यही है कि अंधे ही राज कर रहे है। हालांकि मैं किसी राजनीतिक पार्टी का नाम नही लूंगा। यह इशारा काफी है। यहाँ पर हमने अषाढ़ का एक दिन नाट्य की मंचन किया था। उसमे भी बहुत सारी चीजें है जो आज के दिन में लागु होता है। तो हमको यह सोच कर बड़ी हैरानी होती है कि उस टाइम के राइटर की सोच कितनी एडवांस थी।  यह बात आज भी उतनी ही सच है जितनी उस ज़माने में थी। आप उस पुराने नाटकों में जाएं तो आप चौंक जायेंगे।
या, मैं आपसे कहूं कि गुरु दत्त की फिल्में उठा कर देखेंगे तो आप यह सोचेंगे कि उस वक्त तो सिनेमा ने तो बस जन्म लिया था। गुरु दत्त ने ओवरटेक ले लिए थे जो आज के ज़माने में लेने मुश्किल है।

सवाल : तकनीक के विकास के कारण रंगमंच के स्टाइल में बहुत परिवर्तन आया है ? रंगमंच की चाल और तैयारी को दरअसल समझना चाहते है ?

देखिये तेजी से बदल रही दनिया में समय  के साथ रंगमंच  में भी बदलाव आया है और यह क्रम निरंतर चलता रहेगा। समय के साथ रंगमंच में गीत, संगीत, पेंटिंग जुड़ी। फिर लाइट और साउंड जैसी तकनीक भी जुड़ी। भूमंडलीकरण के दौर में रंगमंच के समक्ष आ रही चुनौतियों से मुकाबला करने के लिए रंगमंच में यह क्षमता है कि वो अलग-अलग कलाओं को अपने में जोड़कर आगे बढ़ता रहेगा है।  

सवाल : आप बहुरंग आईएफटीआई के रंगमंच से बेहद लम्बे वक्त से जुड़े रहे है कितना खास है, यह आपके लिए ?

देखिये आईएफटीआई के प्लेटफॉर्म पर मुझे पूरी फ्रीडम रहती है नाटक चुनने की और मुझे लगता है कि इससे बेहद कोई खास चीज़ किसी रंगमंच के निर्देशक के लिए नही हो सकता।

सवाल : आपके फैंस यह जानना चाहते हैं कि जैसे-जैसे आपके द्वारा निर्देशित नाटकों की संख्या बढ़ती है, आप अपने अनुभव में से वैसे- वैसे उस संख्या को कम करते जाते है ?

क्योंकि मैं हमेशा अपने द्वारा किये कार्य से युवा दिखना चाहता हूँ। (मुस्कुराते हुए )